भारतीय शादी की गज़ब रस्मों में से है जूता चुराई की रस्म। क्या आपने सोचा कि शादी में जूते क्यों चुराए जाते हैं ?
जानते हैं जूता छिपाई की रस्म।
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शादी में जूते क्यों चुराए जाते हैं ? सालियों की मस्ती या है अनोखा राज़
भारत की शादियों में बहुत सी अनोखी और हैरान करने वाली रस्में हैं। आज जानते हैं कि शादी में साली क्यों चुराती हैं जूते।
जानते हैं आखिर क्यों चुराए जाते हैं शादी में जूते।
फेरों से लेकर विदाई के अंतराल में, ये था मस्ती मनोहार का समय
पहले बारात दूर से आती थी। अतः फेरों के बाद कन्या को विदा होने में बहुत समय होता था। ऐसे में माहौल कैसा होगा जब नए रिश्तेदार घर में मौजूद हों?
खाली बैठे नए बने रिश्तों का मनोहार भरा समय होता था जूता चुराई की रस्म।
मस्ती भरे पल कुछ देर के लिए विदाई का गम कम कर देते हैं
फेरो के संग ही लड़की पराई हो जाती है। माता-पिता और भाई-बहनों को विदाई का गम सताने लगता है। ऐसे में मंडप से गायब जूते उन ग़मगीन पलों को मस्ती से भर देते हैं।
दूल्हे की बुद्धिमत्ता और विनोद भाव की है परीक्षा
दूल्हे में हास्य को सहने की क्षमता (sense of humour) कैसी है? यही परीक्षा लेती है यह रस्म। जूते न मिलने पर दूल्हा संयम नहीं खोता बल्कि हंसी मजाक करता रहता है। इसका मतलब है कि दूल्हा मखौल बर्दाश्त कर सकता है।
इसके विपरीत अगर वह चिढ़ जाता है तब यह संकेत है सबके लिए कि आगे भी इस रिश्ते में संभल कर बात करनी होगी।
कुछ चुराने की मस्ती ही करनी है तो जूते ही सही
हम किसी को आदर देते हैं तब झुककर पैर छूते हैं। ऐसे में दुल्हन की बहनें जीजा के जूते चुराती हैं। इसमें मस्ती के संग आदर भी जुड़ा होता है। यह रस्म हंसी मजाक में इस रिश्ते की आदरपूर्ण मर्यादा भी स्थापित कर देती है।
हंसी मजाक में मन के भाव होते हैं साझा
घर के दामाद के संग सबका बेहद नाजुक रिश्ता होता है। ऐसे में छोटे और बड़े दोनों ही हंसी मजाक के इस माहौल में मन के असहज भावों को साझा करते हैं। घर की बिटिया की आदतों को उसकी बहनों की आदतों को साझा करते हैं।
विवाह में जूता चुराने की रस्म कितनी पुरानी है यह कहना तो मुश्किल है। कुछ कहानियां रामायण काल की भी कही जाती हैं। मुझे इन कहानियों का कोई पुख्ता स्रोत मिलेगा तब मैं इन्हे ज़रूर साझा करूंगी।
आपको मेरा ब्लॉग कैसा लगा, मुझे comment section में ज़रूर बताएं। आखिर आपका स्नेह और इस मिट्टी की संस्कार विधि ही मेरी लेखनी की स्याही है।

रस्म और रिवाज़ हैं, एक दूसरे के हमदम!
कलम से पहरा इनपर, रखती हूँ हर दम!