Select Page

कसावु साड़ी, केश में गजरा और हाथ में दीपक! ये नज़ारा है देवों की भूमि केरल के विवाह मंडप से। देखें मलयाली शादी की रस्में ?  

मेरे ब्लॉग में जानिए केरल में शादी कैसे होती है। 

मलयाली शादी की रस्में

यह भी पढ़ें 

शादी की हल्दी क्यों लगाई जाती है

गजब है मलयाली शादी की रस्में साक्षी अग्नि या बिन अग्नि खाई कसमें 

केरल के नम्बूतिरी समाज में विवाह वैदिक पद्धति से पुरोहित के सानिध्य में होता है। यहाँ अग्नि के समक्ष मंत्रोच्चारण संग होता है जबकि अन्य वर्गों में यह पूर्णतः परिवार की इच्छा पर है।  

इसीलिए मैंने नम्बूतिरी विवाह को आधार मानकर ब्लॉग लिखा है।  

    

मलयाली विवाह के पहले की रस्में 

वेली निश्चयं 

वेली लड़के पक्ष की शादी को कहते हैं और निश्चयं का सन्दर्भ है निश्चित। पुरोहित विवाह का दिन और मुहूर्त निकालते हैं और घर के बुजुर्ग परिजनों को विवाह की घोषणा सुनाते हैं।  

समय के साथ रस्म का स्वरुप बदल रहा है। अब कुछ जगह लड़का लड़की एक दूसरे को अंगूठी भी पहनाते हैं।    

अयनीयुनू 

विवाह से एक दिन पहले घर की महिलाएं कन्या को तेल लगाकार स्नान कराने ले जाती हैं। अब कन्या को शगुन की मेहँदी लगाते हैं। मंगल गीत गाते हुए विवाह के लिए एक हज़ार बत्तियां बनाती हैं। इन बत्तियों को एक जलते हुए दीपक के चारों तरफ सजाकर सब नृत्य करती हैं।  

विवाह के एक दिन पहले तय मुहूर्त समय पर कन्या और फिर रिश्तेदारों को पारम्परिक भोज कराया जाता है। भोजन के बाद वो अपने बड़ों का आशीर्वाद लेती है। यही रस्म ठीक इसी तरह लड़के के घर भी होती है।  

Amazing Factभारत कैसे विभिन्नता में भी जुड़ा है वो आप केरल विवाह में भी देख सकते हैं। बंगाल की शादी की तरह ही केरल वेली में भी हर शुभ रस्म में ऊलूलूलूलू की ध्वनि महिलाएं निकालती हैं।    

  

वेली अनुष्ठान (विवाह का दिन)

वरनम

यह दूल्हे के सत्कार की रस्म है। केरल में लड़का बेहद सादगी और शान्ति से लड़की के घर या विवाह स्थल पर पहुँचता है। यहाँ कन्या के पिता लड़के के पग (चरण) धोकर उसका स्वागत करते हैं। वो अपने होने वाले दामाद को स्नान कर विवाह के लिए परम्परागत वस्त्र (ठाटुकल) पहनने का आग्रह करते हैं।   

गणपति नैवेद्यम 

वेली की शुरुआत गणपति जी के आह्वाहन से होती है। यह गणपति जी को नैवेद्य अर्पित करने की रस्म है। यहाँ लड़का और लड़की के पिता अलग अलग गणपति जी को नैवेद्य अर्पण करते हैं। 

नन्दीमुख और प्रायश्चित दानं 

यहाँ दान और प्रार्थना का अति महत्व है। नंदीमुख वेली की प्रमुख रस्म है जिसमें पूर्वजों को स्मरण कर उनके नाम से दान निकालते हैं। 

यह सब निर्विघ्न विवाह, नव दम्पति के सुखमय जीवन और लम्बी आयु की प्रार्थना के लिए होता है। विवाह अनुष्ठान में इसके अलावा भी कोई भूल चूक हो गयी हो तो उसकी क्षमा प्रार्थना कर दान निकालते हैं। इसे प्रायश्चित दानं कहते हैं। 

पुण्याहं 

विधिवत पुरोहित द्वारा मंत्रोच्चारण कर माँ गंगा को कलश में आने के लिए प्रार्थना करते हैं। यह रस्म भी लड़का और लड़की की अलग अलग होती है। इसी गंगा जल से वर एवं कन्या शुद्ध होकर विवाह के लिए तैयार होते हैं।  

ठालीकेट्टू 

मंडप में कन्या के पिता शिव और पार्वती की पूजा कर बेटी को ताली (कंठसूत्रम) पहनाते हैं। ऐसा सिर्फ नम्बूदिरी समुदाय में होता है। बाकी समुदायों में ताली कण्ठसूत्र नहीं मंगलसूत्र है जिसे लड़का अपनी होने वाली पत्नी को पहनाता है।   

कण्ठ सूत्र क्यों मंगलसूत्र क्यों नहीं ?पिता द्वारा कण्ठ सूत्र पहनाने की विचित्र परंपरा केवल केरल के नम्बूतिरी समाज में ही है। ऐसा करने से शास्त्र कन्या को अपने पति की उपस्थिति के बिना ही अपने माता पिता के हर संस्कार को पूरा  करने का अधिकार देता है। 

यही वजह है कि ठाली को कण्ठ सूत्र कहते हैं। मंगलसूत्र पति अपनी पत्नी को पहनाता है।    

कन्या का मंडप आगमन और पाणिग्रहण 

अयनीयूनू में बनी पवित्र बत्तियों को थाली में जलाते हैं। कन्या के मंडप आगमन पर कन्या पक्ष की महिला उस थाली से लड़की की आरती कर नज़र उतारती हैं। मंडप में बैठे लड़के की पात्र में चावल और नारियल के फूल (पोंगुल) से उतारते हैं। इसके बाद ही लड़का लड़की एक दूसरे के सामने आते हैं।    

मंत्रोच्चारण संग कन्या के पिता कन्या का हाथ लड़के के हाथ में देते हैं। वर कन्या का हाथ (पाणी) ग्रहण करता है जिसे पाणिग्रहण कहते हैं।        

ध्यान देने योग्य पाणिग्रहण के बाद कन्या वर की हो जाती है। अगर इसके बाद दुर्भाग्यवश लड़के को कुछ हो जाए तो कन्या पत्नी के संस्कार निभाती है।    

मलार होम और वेली ओट्टू 

मलार होम अग्नि में खील (puffed rice) अर्पण करने की रस्म है। यहाँ पति पत्नी खील अग्नि में डालते हैं। यह खील मंडप में आने से पहले कन्या तैयार करती है। इसके बाद लड़का कन्या को मसाले पीसने वाले पत्थर पर पैर रखवाता  हैं। यह कन्या को आगे उसी की तरह सख्त होने का निर्देश देता है। आखिर यही तो गृहस्थ जीवन की मांग है।  

एक अनजान पहलू ऐसा माना जाता है कि कन्या की रक्षा किशोरावस्था में स्वयं अग्निदेव और गन्धर्व करते हैं। कन्या को अपनी भार्या रूप में ग्रहण करने से पहले लड़का अग्नि को खील अर्पण करता है और प्रार्थना करता है कि वो कन्या को अब उसे ग्रहण करने की अनुमति दें। इसके साथ ही कन्या को उसके पिता के गोत्र से पति के गोत्र में आने की अनुमति दें।  

इन रस्मों के साथ ही वहां उपस्थित सदस्य वेली ओट्टू का गायन करते हैं। यह ऋग्वेद के वो सूक्त हैं जो सूर्यदेव ने अपनी कन्या से कहे थे। इसमें एक विवाहित स्त्री के कर्तव्यों का उल्लेख है। इसके साथ विवाह संपन्न माना जाता है।      

विवाह उपरांत रस्में

यहाँ तक सब रस्मों में लड़के के घर के पुरुष सम्मिलित होते हैं। लेकिन अब जब लड़का अपनी पत्नी के संग घर आता है तब यहाँ से रस्में वरपक्ष की महिलाएं निभाती हैं।  

   

कुडीवेप्पु 

यह घर की महिलाओं द्वारा वर और वधु के स्वागत की रस्म है। आँगन में लाकर घर की वरिष्ठ महिला वधु से पूजन करवाती हैं। अब महिलाएं और नयी वधू आँगन की फेरी लगाते हुए पारम्परिक नृत्य (कैकोट्टिकली) करती हैं। पति पत्नी को साथ बैठाकर सब महिलाएं पारंपरिक मीठा खिलाती हैं।    

ओपासनम

केरल में उपासना की अलग महिमा है। विवाह के बाद अगले चार दिन तक नवदम्पत्ति संध्या वेला में उपासना होम (हवं ) करते हैं जो उन्हें पूरे जीवन साथ करना है। ख़ास बात यह है कि विवाहोपरांत जो उपासना हवं होता है उसमें अग्नि विवाह मंडप के कुंड से लायी जाती है। इस ज्योत को चार दिन तक अखंड रखते हैं। कुछ लोग ये हवं चौथे दिन ही करते हैं लेकिन तब भी विवाह की ज्योत को अखंड रखा जाता है।       

सेकं

चार दिन की उपासना और पूजा पाठ के साथ विवाह की रस्में सेकं के साथ अंत होती हैं और ख़त्म होता है नवविवाहित जोड़ी का इन्तजार। जी 🙂, ये है मिलन की रात। चौथे दिन की सूर्यास्त उपासना के बाद परिवार द्वारा मंत्रोच्चारण के संग पति अपनी पत्नी साथ समय बिताने जाता है। यहीं से तो उनके गृहस्थ जीवन की शुरुआत होती है।    

केरल में नम्बूतिरी समाज का अन्य हिन्दू समाज से वैवाहिक रस्मों का अंतर

किसी भी प्रदेश के विवाह को लेख में समेटना मुश्किल है क्यूंकि हर कुछ मील पर लोकाचार बदल जाता है। केरल में रस्मों के व्यतिरेक पर बात करना इसलिए ज़रूरी है क्यूंकि किसी भी भारतीय वैदिक विवाह में अग्नि के फेरे होते ही हैं।  

केरल में थिय्या, पुलया, एवं अन्य वर्गों में अग्नि के फेरे नहीं होते बल्कि कई जगह पुरोहित भी नहीं होते हैं। मंडप ही कल्याण मंडप होता है जहाँ धान में पोंगुल फूल दो कलश में रखे होते हैं। यहाँ दूल्हा दुल्हन एक दूसरे को फूलों की माला पहनाते हैं और लड़का लड़की को टाली (मंगलसूत्र) पहनाता है। एक दूसरे का हाथ पकड़कर वो कल्याण मंडप के फेरे लगाते हैं और विवाह संपन्न माना जाता है। अगर कोई ईश्वर में बेहद विश्वास करता है तब मंत्रोच्चारण के लिए पुरोहित को बुलाते हैं। 

इन परिवारों में पहले समय में मंदिर में ईश्वर के सामने एक दूसरे को वरमाला पहनाने से विवाह हो जाता था। इसे गन्धर्व विवाह कह सकते हैं। 

      

ये थी कुछ जानकारी कि केरल में शादी कैसे होती है। मलयाली जो कभी मलयालम क्षेत्र था जिसकी एक भाषा थी जिसे बोलने वाले मलयाली कहे जाते हैं। ये लोग प्रमुखतः केरल में रहते हैं इसलिए हमने केरल की शादी की बात की है।  

मुझे आशा आपको मेरा ब्लॉग पसंद आया होगा। मेरा मानना है कि हर लेख में सुधार का scope होता है।  आप अपनी टिप्पणी और सुझाव मुझे comment section में अवश्य दें।